लखनऊ से जब कोई नई साहित्यिक पत्र-पत्रिका निकलती है अथवा यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शिवानी, गिरिधर गोपाल की लीला-स्थली होने के कारण लखनऊ को जब हिंदी उपन्यास जगत की वर्तमान राजधानी कहकर बखाना जाता है तब मुझे उन प्रातःस्मरणीय महापुरुषों का बरबस स्मरण हो आता है, जिनकी अनुपम लगन, त्याग और अथक परिश्रम के कारण ही मेरे नगर को आज यह रुतबा हासिल हुआ है। एक समय लखनऊ ने हमारी उर्दू शैली के रूप में भी चमत्कारी ख्याति अर्जित की थी। उस समय उर्दू के तेज के आगे हिंदी के वास्तविक रूप को यहाँ अपना सिर छिपाने तक की जगह नहीं मिल पाती थी। नवाबी शासन के कायस्थ उच्चाधिकारियों की कृपावश बेनी प्रवीन, द्विजबेनी आदि कुछ प्रसिद्ध कवि यहाँ अवश्य आ बसे थे, महना ललकदास, लेखराज मिश्र, रिखीराम, बादेराय आदि भी यहीं के थे, परंतु ये लोग बत्तीस दाँतों में बेचारी जीभ की तरह अपना निभाव भर ही करते रहे। हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाने की शक्ति उनमें न थी। भला हो सैयद इंशाअल्ला खाँ 'इंशा' का जो उर्दू प्रचार के हेतु बनाई गई मतरूकात कमेटी के सिकत्तर और नवाब सआदतअली खाँ के मुँह लगे मुसाहब होकर भी 'हिंदवी छुट अरबी फारसी का न पुट' शैली में 'रानी केतकी की कहानी' इसी सरजमीने लखनऊ पर रच गए। इस रचना के कारण ही लखनऊ को आधुनिक हिंदी गद्य की जन्मभूमि कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ। लेकिन यह होने पर भी लखनऊ में तब हिंदी अदब के पाँव न जम सके। उसके लिए जमकर काम करने वाले सुमर गदर के बाद अंग्रेजी राज में आए। सन 1884-85 का जमाना राष्ट्रव्यापी नवजागरण का काल था। उन्हीं दिनों लखनऊ में कायस्थों का कायस्थ समाचार और कश्मीरियों का धरम सभा अखबार यह दो जातीय पत्र हिंदी में प्रकाशित हुए। इसकी सूचना तो मुझे थी, पर विशुद्ध साहित्यिक स्तर के किसी पत्र के प्रकाशन हुए। इसकी सूचना तो मुझे थी, पर विशुद्ध साहित्यिक स्तर के किसी पत्र के प्रकाशन के संबंध में पहले मुझे कोई जानकारी नहीं मिल पाई थी।
सन 1950 या 51 के लगभग एक दिन प्रातःस्मरणीय पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने फोन पर मुझ से कहा : ''तुम्हारे यहाँ 'हट्ठीराम की चढ़ाई' नामक किसी टोले से सन 1885 में 'दिनकर प्रकाश' निकला था। बाबू रामलाल बर्म्मन उसके संपादक थे। उनके संबंध में क्या कोई जानकारी मिल सकती है?"
मैंने कहा : "पंडितजी हट्टीराम की चढ़ाई तो इस समय रामआसरे हलवाई के कारण ही सरनाम है। आज से पहले मैंने वहाँ से किसी पत्र के प्रकाशन की बात नहीं सुनी थी।"
पंडितजी बोले : "जरा घूमघाम के टोह लो। यह बाबू रामलाल बर्म्मन कहीं वही तो नही जो वेंकेटेश्वर समाचार के संपादक भी रह चुके थे?"
हट्टीराम की चढ़ाई पर तो मुझे रामलाल जी को कोई सुराग न मिल सका, किंतु चौक के खत्री समाज के बड़े-बूढ़ों से पूछने पर पता चला कि वे सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. बैजनाथ वर्मा, विश्वनाथजी वर्मा आदि के चाचा थे। स्व. विश्वनाथजी से मिलकर मुझे वाजपेयी जी के अनुमान का समर्थन मिला। विश्वनाथजी ने बतलाया : "वह बंबई गए थे। वहीं किसी हिंदी के अखबार के एडीटर हुए। उनको बड़ी इज्जत मिली। किसी रियासत से उन्हें दुशाला, तलवार और कुछ ईनाम भी मिला था। हमारे जन्म से पहले उन्होंने वहाँ से भी नागरी का एक पर्चा निकाला था। वे नागरी के बड़े हिमायती थे। उन्होंने बहुतों को नागरी पढ़ने की सलाह दी। पहले तो भाई, सब लोग उर्दू-फारसी और अंग्रेजी ही पढ़ा करते थे। मुझे बचपन में उर्दू सिखलाई जरूर गई थी, मगर नागरी से ही शुरू की गई थी। बड़े जोशीले आदमी थे हमारे चाचाजी।"
पुराने कागजों में आदरणीय विश्वनाथजी का यह वाक्य इस समय मुझे उनकी याद दिला रहा है। वे और उनके अनुज डॉक्टर साहब मेरे पिता के मित्रों में थे। दिनकर प्रकाश की फाइलें मुझे देखने को नहीं मिल सकीं, वाजपेयीजी महाराज से ही यह सूचना मिली थी कि दिनकर प्रकाश पाक्षिक पत्र था।
मेरे पास साप्ताहिक आनंद की कुछ फाइले अवश्य हैं। किंतु रसिक पंच देखने को नहीं मिला। सन 1886 ई. में भारत जीवन प्रेस, बनारस से छपी तथा रसिक पंच कार्यालय, बड़ी कालिका स्ट्रीट लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्य सागर प्रथम खंड में रसिक पंच नाम देखकर यह अनुमान लगता है कि दिनकर प्रकाश के प्रकाशन काल के आस-पास ही रसिक पंच का प्रकाशन भी आरंभ हुआ होगा। बहरहाल 19पेजी साहित्यासागर के प्रथम खंड में चार लेख हैं, चारों ही 'अधूरे क्रमशः शेषमग्रे' जैसे शब्दों से जुड़े हुए। पहला मधुमक्खियों के पालन कर, दूसरा छंद प्रबंध पर, तीसरा ब्योम यान और चौथा उपवन विलास पर। उन दिनों हमारा बौद्धिक वर्ग अपने समाज को योरोप वालों के समान तरह-तरह से कर्मठ, सुसंस्कृत और समृद्ध बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहा था। '...हमारे देश में व्यर्थ कबूतरबाजी व अन्यान्य व्यर्थ बातों को छोड़ यदि लोग ऐसे कार्यों को करें तो एक पंथ दो काज अर्थात लाभ का लाभ और शौक का शौक दोनों निभ जाएँ। इनके शौकीन योरोप में बहुत हैं। लंदन में जब एक शिलिंग का आधा सेर अच्छा शहद बिकता था तब इसके पालने वालों को। छत्ते से 100 रुपया साल में लाभ मिला था। इसके सिवा कई छत्ते रखकर लोग इसका व्यापार कर सकते हैं और कुछ प्राप्ति भी हो सकती है।''
छंद प्रबंध में हिंदी में 'मरहठी तथा नेपाली' भाषाओं की तरह श्लोक रचना के अभाव को बखानकर लेखक ने खानखाना रचित एक श्लोक का उद्धरण भी दिया है। इस श्लोक में हिंदी और गुजराती शब्दों की विचित्र खिचड़ी है। लगता नहीं कि यह श्लोक अब्दुर्रहीम खानखाना ने रचा होगा। कोई दूसरे खानखाना हिंदी के हिंदी के कवि के रूप प्रसिद्ध नहीं हुए, इसीलिए शंका होती है। बहरहाल इसका निर्णय तो कोई अधिकारी विद्वान ही कर सकता है। श्लोक इस प्रकार है :
बीड़ी रत्नजड़ी त्रयंगुल भरी हरिजड़ी भुगधुकी।
मोती और जड़ाउ की बलबली हाथे च सोना कड़ी।।
कंठे चंद्र उहार सांकर भली माला भली मोतिनी।
आपी ने बरणे कहो, जलनिधीः लक्ष्मीः करों मंगलम् ।।
साहित्य सागर का सारा मैटर एक ही व्यक्ति का लिखा हुआ है। संपादक पं. शिवनाथ जी ही इसके एकमात्र लेखक भी थे।
पत्रिका प्रकाशन आमतौर से अभागे जुआरी का दाँव ही सिद्ध होता था। पंडित शिवनाथजी शर्मा बी.ए. ने इस क्षेत्र के काफी पापड़ बेले। अपनी जवानी के चित्रों में वे काफी स्वस्थ लगते हैं, किंतु मुझे जब का स्मरण हे तब वे क्षीण हो चुके थे। शर्माजी के ज्येष्ठ पुत्र स्व. महेशनाथ जी शर्मा मेरे स्वर्गीय पिताजी के सहपाठी और घनिष्ठ मित्रों में से थे। इसी कारण से मैं पूज्य शर्माजी को 'बाबा साहब' कहा करता था। शर्मा जी आरंभ में अपने-आपको शिवनाथ मिश्र लिखा करते थे। बाद में शर्मा शिवनाथ मिश्र लिखने लगे और अंततोगत्वा वे पं. शिवनाथ शर्मा के नाम से विख्यात हुए। हास्य व्यंग्य के सुलेखकों में उनकी गणना होती थी। शायद ठिगने होने के कारण ही लोग उन्हें 'ठूँठे जी' कहा करते थे। एक ओर जहाँ वे सुधारवादी मनोवृत्ति के थे वहीं दूसरी और वे पुरातन जड़वादी भी थे। उन्होंने नागरी निरादर, चंडूलदास आदि कई सुंदर प्रहसन भी लिखे, लेकिन मिस्टर व्यास की कथा ने उन्हें विशेष ख्याति दी। वे अपना छापाखाना चलाते थे। उन्होंने साप्ताहिक और बाद में दैनिक आनंद भी प्रकाशित किया। इसके साथ खत्री पाठशाला (वर्तमान कालीचरण इंटर कालेज) में हिंदी के अध्यापक भी थे। उनके लिबरल विचारों के संबंध में भले ही कुछ भी कहा जाए, परंतु उनकी हिंदी लगन आज भी अनुकरणीय है। अपने समय में उन्होंने पत्रकारिता का स्तर भी उठाया। ठूँठे जी ने हिंदी के बिरवे को अपने खून-पसीने से सींचकर पल्लवित और पुष्पित कर दिखाया। बड़े, खरे, पैने व्यंग्य बाँके बड़े प्रतिभाशाली, अध्ययनशील और कर्मठ पुरुष थे, हमारे प्रातःस्मरणीय शर्माजी, महाराज! माहामना मालवीय, बालमुकुंद भट्ट जैसे महापुरुषों से उन्हें आदर-मान और स्नेह प्राप्त था। शर्माजी हमारे नगर और विशेष रूप से चौक क्षेत्र की एक विभूति थे। रसिक पंच और साहित्यिक सागर के बाद लगता है कि उनके प्रकाशन के हौसले में कोई रुकावट आ गई थी, क्योंकि सन 1903 में वे चौक क्षेत्र ही से प्रकाशित होने वाली एक अन्य मासिक पत्रिका के संपादक के रूप में दिखलाई पड़ने लगे।
श्री राजराजेश्वरी मासिक पत्रिका का पहला अंक 22 अक्तूबर सन 1901 को विजयादशमी के दिन प्रकाशित हुआ था। उसके संचालक और संपादक प्रोहित (पुरोहित) ज्वालाप्रसाद शर्मा तथा बाबू बद्रीनाथ वर्मा थे। धनी खत्री समाज के पुरोहित होने के कारण कर्पूरिया ज्वाला प्रसाद शर्मा तथा कर्पूरिया श्याम सुंदरजी का बड़ा मान-सम्मान था और वे संपन्न भी थे। दोनों भाई शरीर के भव्य दिखने वाले सद्ब्राह्मण थे। दोनों ने ही कई छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ और लेख, नाटक भी लिखे। किसी भाई के गाल पर एक मोटा मसा था, मूँछे दोनों की शानदार थीं। बाबू बद्रीनाथ वर्मा की मूँछे भी बड़ी-बड़ी थीं, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उनके मुख पर शीतला के कुछ दाग भी थे। उनका मुखमंडल सौम्य और गंभीर था। बाबू बद्रीनाथ वर्मा की मूँछें भी बड़ी-बड़ी थीं, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उनके मुख पर शीतला के कुछ दाग भी थे। उनका मुखमंडल सौम्य और गंभीर था। वे चश्मा भी लगाते थे। मैंने उनकी कोई रचना तो नहीं पढ़ी, परंतु उकने हिंदी प्रेम के संबंध में अवश्य जानता हूँ। जमींदार घराने में होने के कारण अपने हिंदी प्रेम के लिए कुछ धन न्यौछावर कर देना उनके लिए बड़ी बात न थी। यजमान और पुरोहितजी ने मिलकर श्रीराजराजेश्वरी पत्रिका निकाली थी। पत्रिका प्रकाशित होने के पहले ही उसके एक हजार ग्राहक बन गए थे। पहले अंक में प्रस्तावना करते हुए संपादक जी लिखते हैं : ''इस राजराजेश्वरी पत्रिका के प्रबंध करने में मुझे बड़ी चिंता थी परंच केवल दो ही दफे थोड़े ही विज्ञापन छपकर वितरण होने ही से 1000 के लगभग मातृभाषा-प्रेमी, गुनी तथा परोपरकारी ग्राहक महाशयों ने ग्राहक श्रेणी में अपना नाम लिखाकर पूर्ण रीति से मेरे उत्साह को बढ़ाया कि अब मुझे सुदृढ़ विश्वास है कि कौन ऐसा विद्यानुरागी निज सुख भोगी परोपकारी होगा जो अपनी मातृभाषा की उन्नति में कटिबद्ध हो कुछ पुरुषार्थ न दिखावै मैं जानता था कि अन्यान्य पत्रिका तेजपुंज सुलेखकों के द्वारा निकली हुई हैं तो मुझ जैसे क्षुद्र बुद्धि के मनुष्य क्यों कर अपने उत्साह को बढ़ा सकते हैं, परंतु धन्यवाद मैं उन महाशयों को देता हूँ जिन्होंने पत्रिका का एक अंक देखे बिना ग्राहक श्रेणी में अपना नाम लिखाकर मुझको उत्साहित किया।''
इस दो पेजी संपादकीय प्रस्तावना में कॉमा का प्रयोग तो कुछ जगह पर अवश्य किया गया है, किंतु विराम कहीं भूले से भी नहीं लगाया गया। वर्तनी की अशुद्धियाँ भी काफी हैं। जितने लेख और उपन्यास छपे हैं; वे सभी अधूरे हैं। लगता है कि वह क्रमशः वादा ग्राहकों को फँसाए रखने के लिए ही किया जाता था। दो अंकों के बाद ही श्री राजराजेश्वरी नाम और संपादक बदल गए। पत्रिका का नाम वसुंधरा हो गया और संपादक पंडित पंडित शिवनाथजी शर्मा। शर्मा जी संपादनकला में 'प्रेहित' ज्वालाप्रसाद शर्मा बाबू बद्रीनाथ वर्मा से कहीं अधिक कुशल थे। इसलिए पत्रिका में एक ताजगी तो जरूर महसूस होती है, लेकिन अपनी रीति-नीति में वह दकियानूसी ही रही। सबसे मजेदार 'कंट्रोवसी' बाल विधवा विवाह को लेकर हुई। बिजनौर के श्रोत्रिय शंकरलाल ने अक्षत योनि बाल-विधवाओं के विवाह का समर्थन किया। लखनऊ में 'रिफार्मरों' ने दयानंद से बढ़कर आनंद फैलाने का दावा' किया, 'केशव चंद्र' से भी दो कदम बढ़कर पैतरे दिखाए और एक कायस्थ हुए, बड़े-बड़े 'चैलेंज' फेंके गए। भाषा की अशुद्धियाँ निकाली गई। शंकरलालजी ने अपने लेख में कहीं 'रजिस्टरी' शब्द का प्रयोग किया गया था, इस पर वसुंधरा लट्ठ लेकर पिल गई। कहा कि 'रजिष्टरी' बोलो 'रजिस्टरी' नहीं।
नई-पुरानी पीढ़ियों में संवाद का नाता तो नहीं टूटा था; हाँ, वाद-विवाद खूब बढ़ चला था। 'नवशिक्षित समाज' धर्म से मुख मोड़ रहा था। होटल में खाने लगा था और बोटल से ही नहीं, वरन हिंदू-समाज के नवीनीकरण से ही बुग्ज-लिल्लाही था जो भी हो, बीसवीं सदी के आरंभ में इन तरह-तरह की सामाजिक हलचलों की खबर पढ़कर एक ताजगी अवश्य महसूस होती है। समाज-सुधारकों में कुछ लोग स्वेच्छावादी भले ही रहे हों, पर अधिकांश में ये जिम्मेदार लोग थे। वे केवल लिखते ही नहीं थे, बल्कि अपने विचारों के अनुसार समाज का नवीकरण करने के लिए संगठित होकर पुरातनवादियों से लोग भी होते थे। एक बात और भी प्रेरणादायक है, उस समय का हिंदी वाला अपने देश अपने देश की अन्य भाषाओं से नाता जोड़ने का प्रयत्न कर रहा था। वसुंधरा में महाराष्ट्री हिंदी की प्रथम पुस्तक का विज्ञापन छपा है, "जो प्रथम श्रेणी के नवशिक्षित महाशयों के उपकार के निमित्त" की गई थी। चौक, लखनऊ की आर.बी. कंपनी में हिंदी भाषा-भाषियों को 'मरहठी' के ग्रंथ भंडार का स्वाद प्राप्त कराने के लिए इस पुस्तिका का प्रकाशन किया था। मुहल्ला दुगौंआ से पंडित बलदेवप्रसाद उपाध्याय ने गुजराती पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ किया था। मराठी शिक्षा की पोथी और गुजराती पत्रिका की खोज मैंने बहुत की, पर दुर्भाग्यवश उनके संबंध में अब तक कोई भी जानकारी नहीं मिल सकी, शायद मिल भी न सके।
बहरहाल, इन पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलों को पढ़कर एक स्थिति का चित्र बहुत साफ उभरता है - सन 1901 से 03 का भारत प्लेग, हैजे और तरह-तरह की बीमारियों से ग्रस्त और आर्थिक रूप से जर्जर होते हुए भी पस्त-हिम्मत नहीं था। आज फूट का बोलबाला है, तब एकता का सशक्त स्वर उठा रहा था। वर्णाश्रम से बँधी जातियाँ स्वस्थ नैतिक धरातल पर उठने और अपनी सदियों की जड़ता को दूर करने के लिए सक्रिय हो उठी थीं। उनका दृष्टिकोण संकीर्ण से उदार और व्यापक बन रहा था और यह परिवर्तन लाने में भारतीय भाषाओं के पत्र अंग्रेजी पत्रों से अधिक सक्रिय थे। संपादक और लेखक चाहे रूढ़िवादी हों या सुधारवादी; वे अपने मिशन के पक्के थे। छापे के अक्षर तब तक बिके न थे और इसीलिए झूठे नहीं बने थे। यही कारण था कि अपनी हलचलों से वे देश को नया बनाने में समर्थ सिद्ध हुए।
हिंदी यों तो आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है, पर उस समय निहित स्वार्थों के लोग इस आंदोलन से कोसों दूर थे। हिंदी का लेखक और संपादक उस समय तरह-तरह के अभावों से जूझकर ही अपनी बात को बुलंद कर सकता था। यह लेखक और संपादक चाहे नए वर्ग का हो या पुराने वर्ग का, जहाँ तक भाषा का संबंध था, वह एक ही निष्ठा से परिचालित था। वह निष्ठा राष्ट्र के प्रति समर्पित थी। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय हैं, 'हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान' के नारे से बँधी हुई हिंदी एक जगह संकीर्ण सांप्रदायिकता के घेरे से उबर भी सकती थी। उसे मुसलमानों से बैर नहीं था। वसुंधरा में अब्दुर्रहीम खानखाना पर एक लेख बडे आदरभाव के साथ छपा। हिंदू-मुसलमानों, विशेष रूप में नवशिक्षित नगर निवासियों, में हिंदी-उर्दू को लेकर एक बहुत बडी दीवार खिंची हुई थी। आभिजात्य मुसलमान वर्ग अपने पक्के ईमान के साथ यह मानता था कि उर्दू ही को आमुहम जबान का दर्जा हासिल था और है। 'भाखा' तो बेपढ़े लिखों की जबान थी और है। उसे जबर्दस्ती मदनमोहन मालवीय आदि चंद पढ़े-लिखों हिंदुओं ने ब्रिटिश सरकार पर जोर-दबाव डालकर अदालत की भाषा का दर्जा दिला दिया। कोर्स में भी हिंदी चलवाई। यह हिंदुओं की सरकार नाइंसाफी और ज्यादती है। कोर्स में भी हिंदी चलवायी। यह हिंदुओं की सरासर नाइंसाफी और ज्यादती है। वह हमसे मेल नहीं रखना चाहते।
हिंदू शिक्षित समाज भी मुहम्मद शाह रंगीले के समय से चले हुए 'मतरुक' आंदोलन के घाव खाए हुए था। भारतेंदु और शिवप्रसाद सितारे हिंद में कोर्स में पढ़ाई जाने वाली भाषा को लेकर जो बहस चली थी वह बड़ी न्याययुक्त थी। हिंदवी भाषा के अधिकाधिक शब्दों को हटाकर उनके स्थान पर अरबी, फारसी के शब्दों का चलन चलाकर आभिजात्य मुसलमानों और उनके संपर्क में रहते कतिपय हिंदुओं के लिए हमारी भाषा फारसी भाषा का नायाब इमीटेशन तो जरूर बन गई, पर भारतीय परंपरागत विचारधारा को अपनी सहज स्वाभाविक गति से आगे बढ़ाने में वह कदापि सक्षम नहीं रह गई थी। इसलिए जो सुविचारक समाज अपने प्रचलित शब्दों और देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करता था, वह अनिवार्य रूप से उर्दू का विरोधी कदापि नहीं था। अमल में पुराने विजित-विजेताओं के मनोवैज्ञानिक नाते इस भाषा-द्वन्द्व की आड़ में दोनों को ही चुभ रहे थे। आभिजात्य मुसलमान की शिकायत यह थी कि जब हमारी तलवार में जोर था, तब तो यह धोती परशाद कभी चूँ तक करने की हिम्मत नहीं करते थे और आज हमारे बुरे दिनों में यह हमारे किए को नामेट कर देना चाहते हैं। हिंदू नवशिक्षित कहता था कि हम तुम्हारे सामंती नाहक हठ के पीछे अपने हजारों वर्षों के व्यक्तित्व को नामेट कैसे कर दें। हिंदुस्तान में सिर्फ उर्दू ही नहीं, और भाषाएँ भी हैं। हम उर्दू की शब्दावली को जस का तस स्वीकार करके केवल उत्तर भारत के ही मुट्ठी भर मुसलमानों को खुश करने के लिए सारे भारत से अपने संवादों का नाता क्यों तोड़ दें।
15 मार्च सन 1907 ई. को प्रकाशित नागरी प्रचारक के तीसरे अंक में श्री रूपनारायण शर्मा पांडेय का 'भ्रम खंडन' शीर्षक से प्रकाशित एक लेख हिंदी-उर्दू की समस्या की दृष्टि से आज भी पठनीय लगता है। इस लेख के कतिपय उद्धरण देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। लेख बड़ी सद्भावना के साथ न्यायसंगत तरीके से लिखा गया था -
''सच है सिवाय ईश्वर के कोई भी आदमी भ्रमशून्य नहीं है वह चाहे कैसा ही विद्वान बुद्धिमान क्यों न हो। ...शायद प्रकृति का एक नियम यह भी है कि कैसा ही सुयोग्य और सुशिक्षित हो उसे अपना भ्रम नहीं प्रतीत होता किंतु उस भ्रम को एक छोटा-सा बालक देख लेता है। इसका कारण यही है कि अपने कथन की निष्पक्षपात समालोचना आप से नहीं होती क्योंकि प्रायः सभी स्वार्थ से भरे हैं।''
माननीय गोपालकृष्ण गोखले लखनऊ पधारे थे। मिस्टर युसुफ हुसैन खाँ बैरिस्टर की कोठी पर उनके सम्मान में एक जलपान गोष्ठी का आयोजन हुआ। प्रदेश के अनेक सुप्रतिष्ठित लोग उसमें आमंत्रित होकर पधारे थे। अलीगढ़ के नवाब मोहसिन मुल्क साहब भी तशरीफ लाए थे। ''वहाँ हिंदू और मुसलमानों में एकता होने का प्रसंग छिड़ा। उक्त महोदय नवाब मोहसिन मुल्क के कथन से प्रतीत हुआ कि हिंदू-मुसलमानों में एकता न होने के कारण मुसलमान नहीं वरन हिंदू हैं। हम साहस के साथ कह सकते हैं कि कभी नहीं, हिंदू मुसलमानों के आचार-विचार के पक्षपाती नहीं हैं, पर आंतरिक द्वेष कभी नहीं रखते, वरन उनको अपना भाई समझते हैं। हाँ सौ-पचास से किसी विशेष कारणवश द्वेष हो तो हम नहीं कह सकते पर स्वाभाविक बैर कभी नहीं रखते...।''
''आगे चलकर हमारे माननीय नवाब साहब हिंदुओं का दोष यह बताते हैं कि हिंदू लोग उर्दू को उड़ा देना चाहते हैं। भला हिंदू लोग सिवाय हिंदुओं को उर्दू पढ़ने से रोकने के मुसलमानों को कैसे रोक सकते हैं? इसलिए यदि हिंदू मात्र उर्दू को छोड़ भी दें तो उर्दू नेस्तनाबूद कैसे हो सकती है? क्योंकि वह मुसलमानों का आश्रय लेगी। रही कचहरी आदि में उर्दू की जगह हिंदी होने की बात, सो हमारा यह अभीष्ट कभी नहीं कि उर्दू बिल्कुल न रहे... रही कोशिश करने की बात, सो ऐसा कौन होगा जो अपने देश व अपनी भाषा की उन्नति (उस दशा में जब उसके नष्ट हो जाने के आसार पाए जाते हैं) न चाहेगा तब हमारी कोशिश इसलिए कि उर्दू के साथ ही नागरी का प्रचार भी हो, अन्याय कभी नहीं है।''
''आपने यह भी कहा कि 'मुसलमान लोग उर्दू को अरब या फारस से नहीं लाए हैं, वह अरब या ईरान की भाषा नहीं है।' हाँ, यह अवश्य है कि आप लोग उर्दू भाषा अरब, ईरान से नहीं लाए पर उर्दू अक्षर (अलिफ बे, इत्यादि) तो आप ही के लाए हुए हैं। यहाँ पर यह भी कह देना उचित होगा कि हम लोगों को विशेष दिक्कत उर्दू अक्षरों से ही होती है, उर्दू अक्षरों से ही होती है, उर्दू भाषा से नहीं...।''
सन 1907 में और सन 1972 की परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है, पर आश्चर्य होता है कि इस लेख में दिए गए दोनों पक्षों के बहुत से तर्क आज तक उसी तरह प्रचलित हैं। पूज्य पं. रूपनारायण पांडेय खरे कलम के मजदूर थे।
नागरी प्रचारक के प्रकाशक थे बाबू गोपाललाल खत्री। खत्रीजी जौनपुर के एक जमींदार कुल के वंशज थे। वे बड़े सुंदर और भव्य व्यक्तित्वशाली थे। इलाहाबाद बैंक में वह मेरे पितामह के सहयोगी थे। सन 1902 में इलाहाबाद बैंक लखनऊ की चौक शाखा स्थापित करने के कुछ महीनों के बाद मेरे पितामह बैंक की कोई अन्य शाखा स्थापित करने के लिए बाहर चले गए। बाबू गोपाल लाल खत्री चौक शाखा में उनकी एवज में काम करने भेजे गए। खत्रीजी तब लालबाग में रहते थे। वे खत्री जी से आयु में बड़े थे और उनके प्रति उनका स्नेह भाव भी था। मेरे दादाजी अकेले बाहर गए थे। मेरी दादी और पिता यहीं रहे। बैंक की ओर से रहने के लिए दादाजी को जो कोठी मिली थी, वह बहुत बड़ी थी। अकेलेपन से मेरी दादी घबरा न जाएँ, इसलिए मेरे दादा ने जाने से पहले कहा : ''गोपाललाल, तुम अपना परिवार यहाँ ले आओ और कोठी के आधे भाग में रहा करो।'' इस प्रकार जब मेरा जन्म हुआ तब गोपाललाल 'ताऊजी' का परिवार मेरे पूर्वजों के साथ रह रहा था। गोपाललालजी खत्री हिंदी और स्वदेशी वस्तुओं के अनन्य अनुरागी थे। उन्होंने केवल नागरी प्रचारक ही नहीं, एक नागरी प्रचारिणी कंपनी की स्थापना भी की थी। एक नागरी प्रचारिणी लाटरी योजना़ भी उन्होंने चलाई थी। बाद में हिंदी रंगमंच के उत्थान के लिए भी उन्होंने एक छोटा-मोटा आंदोलन-सा चलाया था। गोपाललालजी ने अलबेलरागिया नामक एक उपन्यास की भी रचना की थी। सन 1934 में मैंने तथा वर्तमान नवजीवन संपादक तथा कुछ और मित्रों ने मिलकर यूथ यूनियन क्लब से एक द्वैमासिक पत्रिका सुनीति निकाली थी। गोपाललालजी का एक रोचक लेख उसमें प्रकाशित हुआ है और शायद यही उनका अंतिम लेख था। वे आधुनिक लखनऊ के निर्माता कांग्रेस अध्यक्ष बाबू गंगा प्रसाद वर्मा के समधी थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र स्व. सूरजनारायनजी का विवाह वर्माजी के अनुज बाबू ईश्वरी प्रसाद की पुत्री से हुआ था।
नागरी प्रचारक का एक अंक प्रकाशित करने के बाद शायद उन्हें यह अनुभव हुआ कि बैंक का काम करने के साथ-साथ वे नागरी प्रचारक का काम पूरी तरह से न सँभाल सकेंगे, इसलिए चौक से सुख्यात वैद्य पं. श्यामारामजी जैतली के सुझाव पर उन्होंने पं. रूपनारायण जी पांडेय का सहयोग लिया। नागरी-प्रचारक संपादन और मैटर की दृष्टि से तब तक प्रकाशित लखनऊ की सभी पत्र-पत्रिकाओं से अच्छा था। पांडेय जी संपादन-कला में सिद्धहस्त थे। यह पत्र शायद दो वर्षों तक ही प्रकाशित हो पाया।
सन 1909 ई. के लगभग स्व. साह मदनमोहन जी ने 'लक्ष्मण साहित्य भंडार' नामक एक प्रकाशन संस्था की स्थापना की। यह ललित किशोरी, ललित माधुरी जी के वंश की लखनऊ शाखा के कुलदीपक थे और बड़े ही उदार पुरुष थे।
मेरे पास लक्ष्मण साहित्य भंडार से प्रकाशित कुछ पुस्तकें हैं। स्वर्गीय रामचंद्र वर्मा लिखित सुभाषित और विनोद, साह मदन मोहन लिखित रघुनाथ राव नाटक, प्रयाग नारायण मिश्र रचित राघवगीत तथा बालमुकुंद वाजपेयी द्वारा बँगला से अनूदित विदेश यात्रा; यह सभी पुस्तकें उच्च कोटि की हैं।
लखनऊ को हिंदीमय बनाने में 'मिश्र बंधु', रूपनारायण पांडेय, दुलारेलाल भार्गव, कालिदास कपूर जैसे लेखकों, संपादकों तथा नारायण स्वामी, बिहारीलाल गुजराती जैसे अटूट लगन के धनियों का हाथ है। यह प्रेमचंद और निराला की कर्मभूमि है। यहाँ से सदा साहित्य के उदात्त स्वर ही फूटे हैं।
(1972 , साहित्य और संस्कृति में संकलित)